चौपाई- देह बिसाल परम हरुआई। मन्दिर तें मन्दिर चढ़ धाई।। जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला।।1।। देह बड़ी विशाल, परन्तु बहुत ही हल्की (फुर्तीली) है। वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़ जाते हैं। नगर जल रहा है लोग बेहाल हो गए हैं। आग की करोड़ों भयंकर लपटें झपट रही हैं।।1।। तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा।। हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई।।2।। हाय बप्पा! हाय मैया! इस अवसर पर हमें कौन बचाएगा? (चारों ओर) यही पुकार सुनाई पड़ रही है। हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है, वानर का रूप धरे कोई देवता है!।।2।। साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा।। जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं।।3।। साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है। हनुमान्जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं जलाया।।3।। ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।। उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी।।4।। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! जिन्होंने अग्नि को बनाया, हनुमान्जी उन्हीं के दूत हैं। इसी कारण वे अग्नि से नहीं जले। हनुमान्जी ने उलट-पलटकर (एक ओर से दूसरी ओर तक) सारी लंका जला दी। फिर वे समुद्र में कूद पड़े।।4।। दोहा- पूंछ बुझाइ खोइ म धरि लघु रूप बहोरि। जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।।26।। पूंछ बुझाकर, थकावट दूर करके और िफर छोटा सा रूप धारण कर हनुमान्जी श्री जानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए।।26।। चौपाई- मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा।। चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ।।1।। (हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमान्जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया।।1।। कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।। दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ सम संकट भारी।।2।। (जानकीजी ने कहा-) हे तात ! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहनाहे प्रभु ! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है), तथापि दीनों (दु:खियों) पर दया करना आपका विरद है (और मैं दीन हूं) अत: उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए।।2।। तात सक्रसुत कथा सनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु।। मास दिवस महुं नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा।।3।। हे तात! इन्द्रपुत्र जयन्त की कथा (घटना) सुनाना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना (स्मरण कराना)। यदि महीने भर में नाथ न आए तो फिर मुझे जीती न पाएंगे।।3।। कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना।। तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुं सोइ दिनु सो राती।।4।। हे हनुमान् ! क हो मैं किस प्रकार प्राण रक्खूं ! हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो। तुमको देखकर छाती ठण्डी हुई थी। फिर मुझे वही दिन वही रात ! ।।4।। दोहा- जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह। चरन क मल सिरु नाई कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।।27।। हनुमान्जी ने जानकीजी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरन कमलों में सिर नवाकर श्री रामचन्द्रजी के पास गमन किया।।27।। चौपाई- चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी।। नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा।।1।। चलते समय उन्होंने महाध्वनि से भारी गर्ज़न किया, जिसे सुनकर राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिरने लगे। समुद्र लांघकर वे इस पार आए और उन्होंने वानरों को किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनाया।।1।। हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना।। मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा।।2।। हनुमान्जी को देखकर सब हर्षित हो गए और तब वानरों ने अपना नया जन्म समझा। हनुमान्जी का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है, (जिससे उन्होंने समझ लिया कि) ये श्री रामचन्द्रजी का कार्य कर आए हैं।।2।। मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी।। चले हरषि रघुनायक पासा। पूंछत कहत नवल इतिहासा।।3।। सब हनुमान्जी से मिले और बहुत ही सुखी हुए, जैसे तड़पती हुई मछली को जल मिल गया हो। सब हर्षित होकर नए-नए इतिहास (वृत्तान्त) पूछते- कहते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले।।3।। तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए।। रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे।।4।। तब सब लोग मधुवन के भीतर आए और अंगद की सम्मति से सबने मधुर फल (या मधु और फल) खाए। जब रखवाले बरजने लगे, तब घूंसों की मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे।।4।। दोहा- जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज। सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।।28।। उन सबने जाकर पुकारा कि युवराज अंगद वन उजाड़ रहे हैं। यह सुनकर सुग्रीव हर्षित हुए कि वानर प्रभु का कार्य कर आए हैं।।28।। चौपाई- जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि काई।। एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा।।1।। यदि सीताजी की खबर न पाई होती तो क्या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस प्रकार राजा सुग्रीव मन में विचार कर ही रहे थे कि समाज सहित वानर आ गए।।1।। आइ सबिन्ह नावा पद सीसा। मिलेउ सबिन्ह अति प्रेम कपीसा।। पूंछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपां भा काजु बिसेषी।।2।। सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया। कपिराज सुग्रीव सभी से बड़े प्रेम के साथ मिले। उन्होंने कुशल पूछी, (तब वानरों ने उत्तर दिया-) आपके चरणों के दर्शन से सब कुशल है। श्री रामजी की कृपा से विशेष कार्य हुआ (कार्य में विशेष सफलता हुई है)।।2।। नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना।। सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ।।3।। हे नाथ! हनुमान ने सब कार्य किया और सब वानरों के प्राण बचा लिए। यह सुनकर सुग्रीवजी हनुमान्जी से फिर मिले और सब वानरों समेत श्री रघुनाथजी के पास चले।।3।। राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएं काजु मन हरष बिसेषा।। फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनिन्ह जाई।।4।। श्री रामजी ने जब वानरों को कार्य किए हुए आते देखा तब उनके मन में विशेष हर्ष हुआ। दोनों भाई स्फटिक शिला पर पैठे थे। सब वानर जाकर उनके चरणों पर गिर पड़े।।4।। दोहा- प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज।। पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।।29।। दया की राशि श्री रघुनाथजी सबसे प्रेम सहित गले लगकर मिले और कुशल पूछी। (वानरों ने कहा-) हे नाथ! आपके चरण कमलों के दर्शन पाने से अब कुशल है।।29।। चौपाई- जामवन्त कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया।। ताहि सदा सुभ कुसल निरन्तर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।।1।। जाम्बवान् ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए। हे नाथ! जिस पर आप दया करते हैं, उसे सदा कल्याण और निरन्तर कुशल है। देवता, मनुष्य और मुनि सभी उस पर प्रसन्न रहते हैं।।1।। सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर।। प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।।2।। वही विजयी है, वही विनयी है और वही गुणों का समुद्र बन जाता है। उसी का सुन्दर यश तीनों लोकों में प्रकाशित होता है। प्रभु की कृपा से सब कार्य हुआ। आज हमारा जन्म सफल हो गया।।2।। नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुं मुख न जाइ सो बरनी।। पवनतनय के चरित सुहाए। जामवन्त रघुपतिहि सुनाए।।3।। हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान् ने जो करनी की, उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता। तब जाम्बवान् ने हनुमान्जी के सुन्दर चरित्र (कार्य) ी रघुनाथजी को सुनाए।।3।। सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियं लाए।। कहहु तात केहि भांति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।4।। (वे चरित्र) सुनने पर कृपानिधि श्री रामचन्दजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। उन्होंने हर्षित होकर हनुमान्जी को फिर हृदय से लगा लिया और कहा- हे तात! कहो, सीता किस प्रकार रहती और अपने प्राणों की रक्षा करती हैं?।।4।। दोहा- नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जन्त्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।।30।। (हनुमान्जी ने कहा-) आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किंवाड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएं तो किस मार्ग से?।।30।। चौपाई- चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयं लाइ सोइ लीन्ही।। नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।।1।। चलते समय उन्होंने मुझे चूड़ामणि (उतारकर) दी। श्री रघुनाजी ने उसे लेकर हृदय से लगा लिया। (हनुमान्जी ने फिर कहा-) हे नाथ! दोनों नेत्रों में जल भरकर जानकीजी ने मुझसे कुछ वचन कहे-।।1।। अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना।। मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी।।3।। छोटे भाई समेत प्रभु के चरण पकड़ना (और कहना कि) आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दु:खों को हरने वाले हैं और मैं मन, वचन और कर्म से आपके चरणों की अनुरागिणी हूं। िफर स्वामी (आप) ने मुझे किस अपराध से त्याग दिया?।।2।। अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।। नाथ सो नयनिन्ह को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।।3।। (हां) एक दोष मैं अपना (अवश्य) मानती हूं कि आपका वियोग होते ही मेरे प्राण नहीं चले गए, किन्तु हे नाथ! यह तो नेत्रों का अपराध है जो प्राणों के निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं।।3।। बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।। नयन स्त्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी।।4।। विरह अग्नि है, शरीर रूई है और श्वास पवन है, इस प्रकार (अग्नि और पवन का संयोग होने से) यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है, परन्तु नेत्र अपने हित के लिए प्रभु का स्वरूप देखकर (सुखी होने के लिए) जल (आंसू) बरसाते हैं, जिससे विरह की आग से भी देह जलने नहीं पाती।।4।। सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।5।। सीताजी की विपत्ति बहुत बड़ी है। हे दीनदयालु! वह बिना कही ही अच्छी है (कहने से आपको बड़ा क्लेश होगा)।।5।। दोहा- निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति। बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।।31।। हे करुणानिधान! उनका एक-एक पल कल्प के समान बीतता है। अत: हे प्रभु! तुरन्त चलिए और अपनी भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीतकर सीताजी को ले आइए।।31।। चौपाई- सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना।। बचन कायं मन मम गति जाही। सपनेहुं बूझिअ बिपति कि ताही।।1।। सीताजी का दु:ख सुनकर सुख के धाम प्रभु के कमल नेत्रों में जल भर आया (और वे बोले-) मन, वचन और शरीर से जिसे मेरी ही गति (मेरा ही आय) है, उसे क्या स्वप्न में भी विपत्ति हो सकती है?।।1।। कह हनुमन्त बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।। केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी।।2।। हनुमान्जी ने कहा- हे प्रभु! विपत्ति तो वही (तभी) है जब आपका भजन-स्मरण न हो। हे प्रभो! राक्षसों की बात ही कितनी है? आप शत्रु को जीतकर जानकीजी को ले आवेंगे।।2।। सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।। प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।3।। (भगवान् कहने लगे-) हे हनुमान्! सुन, तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मैं तेरा प्रत्युपकार (बदले में उपकार) तो क्या करूं, मेरा मन भी तेरे सामने नहीं हो सकता।।3।। सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउं करि बिचार मन माहीं।। पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता।।4।। हे पुत्र! सुन, मैंने मन में (खूब) विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता। देवताओं के रक्षक प्रभु बार-बार हनुमान्जी को देख रहे हैं। नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भरा है और शरीर अत्यन्त पुलकित है।।4।। दोहा- सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमन्त। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवन्त।।32।। प्रभु के वचन सुनकर और उनके (प्रसन्न) मुख तथा (पुलकित) अंगों को देखकर हनुमान्जी हर्षित हो गए और प्रेम में विकल होकर `हे भगवन्! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो´ कहते हुए श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े।।32।। चौपाई- बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा।। प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा।।1।। प्रभु उनको बार-बार उठाना चाहते हैं, परन्तु प्रेम में डूबे हुए हनुमान्जी को चरणों से उठना सुहाता नहीं। प्रभु का करकमल हनुमान्जी के सिर पर है। उस स्थिति का स्मरण करके शिवजी प्रेममग्न हो गए।।1।। सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुन्दर।। कपि उठाई प्रभु हृदयं लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा।।2।। फिर मन को सावधान करके शंकरजी अत्यन्त सुन्दर कथा कहने लगे- हनुमान्जी को उठाकर प्रभु ने हृदय से लगाया और हाथ पकड़कर अत्यन्त निकट बैठा लिया।।2।। कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।। प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना।।3।। हे हनुमान्! बताओ तो, रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बड़े बांके किले को तुमने किस तरह जलाया? हनुमान्जी ने प्रभु को प्रसन्न जाना और वे अभिमानरहित वचन बोले- ।।3।। साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साका पर जाई।। नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।4।। बन्दर का बस, यही बड़ा पुरुषार्थ है कि वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है। मैंने जो समुद्र लांघकर सोने का नगर जलाया और राक्षसगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला,।।4।। सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।।5।। यह सब तो हे श्री रघुनाथजी! आप ही का प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता (बड़ाई) कुछ भी नहीं है।।5।। दोहा- ता कहुं प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल। तव प्रभावं बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल।।33।। हे प्रभु! जिस पर आप प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभाव से रूई (जो स्वयं बहुत जल्दी जल जाने वाली वस्तु है) बड़वानल को निश्चय ही जला सकती है (अर्थात् असम्भव भी सम्भव हो सकता है)।।3।। चौपाई- नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी।। सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी।।1।। हे नाथ! मुझे अत्यन्त सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान्जी अत्यन्त सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु ी रामचन्द्रजी ने `एवमस्तु´ (ऐसा ही हो) कहा।।1।। उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।। यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा।।2।। हे उमा! जिसने श्री रामजी का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती। यह स्वामी-सेवक का संवाद जिसके हृदय में आ गया, वही श्री रघुनाथजी के चरणों की भक्ति पा गया।।2।। सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृन्दा। जय जय जय कृपाल सुखकन्दा।। तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा।।3।। प्रभु के वचन सुनकर वानरगण कहने लगे- कृपालु आनन्दकन्द श्री रामजी की जय हो जय हो, जय हो! तब श्री रघुनाथजी ने कपिराज सुग्रीव को बुलाया और कहा- चलने की तैयारी करो।।3।। अब बिलंबु केह कारन कीजे। तुरन्त कपिन्ह कहं आयसु दीजे।। कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी।।4।। अब विलंब किस कारण किया जाए। वानरों को तुरन्त आज्ञा दो। (भगवान् की) यह लीला (रावणवध की तैयारी) देखकर, बहुत से फूल बरसाकर और हर्षित होकर देवता आकाश से अपने-अपने लोक को चले।।4।। दोहा- कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ। नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ।।34।। वानरराज सुग्रीव ने शीघ्रही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह आ गए। वानर-भालुओं के झुण्ड अनेक रंगों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है।।34।। चौपाई- प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्ज़हिं भालु महाबल कीसा।। देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना।।1।। वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान् बलवान् रीछ और वानर गरज रहे हैं। ी रामजी ने वानरों की सारी सेना देखी। तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली।।1।। राम कृपा बल पाइ कपिन्दा। भए पच्छजुत मनहुं गिरिन्दा।। हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुन्दर सुभ नाना।।2।। राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पंखवाले बड़े पर्वत हो गए। तब श्री रामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान (कूच) किया। अनेक सुन्दर और शुभ शकुन हुए।।2।। जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती।। प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अंग जनु कहि देहीं।।3।। जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है, उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है (लीला की मर्यादा है)। प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान लिया। उनके बाएं अंग फड़क-फड़ककर मानो कहे देते थे (कि श्री रामजी आ रहे हैं)।।3।। जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहिं सोई।। चला कटकु को बरनैं पारा। गर्ज़हिं बानर भालु अपारा।।4।। जानकीजी को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के लिए अपशकुन हुए। सेना चली, उसका वर्ण कौन कर सकता है? असंख्य वानर और भालू गर्ज़ना कर रहे हैं।।4।। नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी।। केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं।।5।। नख ही जिनके शस्त्र हैं, वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलने वाले रीछवानर पर्वतों और वृक्षों को धारण किए कोई आकाश मार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे हैं। वे सिंह के समान गर्ज़ना कर रहे हैं। (उनके चलने और गर्ज़ने से) दिशाओं के हाथी विचलित होकर चिग्घाड़ रहे हैं।।5।। छन्द- चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे। मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे।। कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं। जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं।।1।। दिशाओं के हाथी चिग्घाड़ने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चंचल हो गए (कांपने लगे) और समुद्र खलबला उठे। गंधर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब के सब मन में हर्षित हुए` कि (अब) हमारे दु:ख टल गए। अनेकों करोड़ भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोड़ों ही दौड़ रहे हैं। `प्रबल प्रताप कोसलनाथ ी रामचन्द्रजी की जय हो´ ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहों को गा रहे हैं।।1।। सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई। गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई।। रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी। जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी।।2।। उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबड़ा जाते) हैं और पुन:-पुन: कच्छप की कठोर पीठ को दांतों से पकड़ते हैं। ऐसा करते (अर्थात् बार-बार दांतों को गड़ाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खींचते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे हैं मानों श्री रामचन्द्रजी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हों।।2।। दोहा- एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर। जहं तहं लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर।।35।। इस प्रकार कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर जा उतरे। अनेकों रीछ-वानर वीर जहां-तहां फल खाने लगे।।35।। चौपाई- उहां निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका।। निज निज गृहं सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।1।। वहां (लंका में) जब से हनुमान्जी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षस कुल की रक्षा (का कोई उपाय) नहीं है।।1।। जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएं पुर कवन भलाई।। दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मन्दोदरी अधिक अकुलानी।।2।। जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है (हम लोगों की बड़ी बुरी दशा होगी)? दूतियों से नगरवासियों के वचन सुनकर मन्दोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई।।2।। रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी।। कन्त करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियं धरहू।।3।। वह एकान्त में हाथ जोड़कर पति (रावण) के चरणों लगी और नीतिरस में पगी हुई वाणी बोली- हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यन्त ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए।।3।। समुझत जासु दूत कइ करनी। स्त्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी।। तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कन्त जो चहहु भलाई।।4।। जिनके दूत की करनी का विचार करते ही (स्मरण आते ही) राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मन्त्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए।।4।। तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई।। सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।।5।। सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दु:ख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान आई है। हे नाथ। सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता।।5।। दोहा- राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक। जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।।36।। श्री रामजी के बाण सर्पों के समूह के समान हैं और राक्षसों के समूह मेढक के समान। जब तक वे इन्हें ग्रस नहीं लेते (निगल नहीं जाते) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए।।36।। चौपाई- वन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी।। सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुं भय मन अति काचा।।1।। मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हंसा (और बोला-) स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। मंगल में भी भय करती हो। तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है।।1।। जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।। कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा।।2।। यदि वानरों की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे। लोकपाल भी जिसके डर से कांपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हंसी की बात है।।2।। अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभां ममता अधिकाई।। मन्दोदरी हृदयं कर चिन्ता। भयउ कन्त पर बिधि बिपरीता।।3।। रावण ने ऐसा कहकर हंसकर उसे हृदय से लगा लिया और ममता बढ़ाकर (अधिक स्नेह दर्शाकर) वह सभा में चला गया। मन्दोदरी हृदय में चिन्ता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए।।3।। बैठेउ सभां खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई।। बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हंसे मष्ट करि रहहू।।4।। ज्यों ही वह सभा में जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है, उसने मन्त्रियों से पूछा कि उचित सलाह कहिए (अब क्या करना चाहिए?)। तब वे सब हंसे और बोले कि चुप किए रहिए (इसमें सलाह की कौन सी बात है?)।।4।। जितेहु सुरासुर तब म नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं।।5।। आपने देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तब तो कुछ म ही नहीं हुआ। फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?।।5।। दोहा- सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।37।। मन्त्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि (अप्रसन्नता के) भय या (लाभ की) आशा से (हित की बान न कहकर) प्रिय बोलते हैं (ठकुर सुहाती कहने लगते हैं), तो (क्रमश राज्य, शरीर और धर्म- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है।।37।। चौपाई- सोइ रावन कहुं बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।। अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा।।1।। रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है। मन्त्री उसे सुना-सुनाकर (मुंह पर) स्तुति करते हैं। (इसी समय) अवसर जानकर विभीषणजी आए। उन्होंने बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया।।1।। पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन।। जौ कृपाल पूंछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउं हित ताता।।2।। िफर से सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और आज्ञा पाकर ये वचन बोलेहे कृपाल जब आपने मुझसे बात (राय) पूछी ही है, तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूं-।।2।। जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना।। सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चन्द कि नाईं।।3।। जो मनुष्य अपना कल्याण, सुन्दर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी! परस्त्री के ललाट को चौथ के चन्द्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात् जैसे लोग चौथ के चन्द्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)।।3।। चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई।। गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।।4।। चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है) जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई भला नहीं कहता।।4।। दोहा- काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ। सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि सन्त।।38।। हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्री रामचन्द्रजी को भजिए, जिन्हें सन्त (सत्पुरुष) भजते हैं।।38।। चौपाई- तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।। ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता। ब्यापक अजित अनादि अनन्ता।।1।। हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, यश, ी, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भण्डार) भगवान् हैं, वे निरामय (विकाररहित), अजन्मा, व्यापक, अजेय, अनादि और अनन्त ब्रह्म हैं।।1।। गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी।। जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।।2।। उन कृपा के समुद्र भगवान् ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनन्द देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं।।2।। ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा।। देहु नाथ प्रभु कहुं बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही।।3।। वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। वे श्री रघुनाथजी शरणागत का दु:ख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए।।3।। सरन गएं प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।। जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियं रावन।।4।। जिसे सम्पूर्ण जगत् से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते। जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिए।।4।। दोहा- बार बार पद लागउं बिनय करउं दससीस। परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।।39क।। हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूं और विनती करता हूं कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए।।39 (क)।। मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात। तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात।।39ख।। मुनि पुलस्त्यजी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! सुन्दर अवसर पाकर मैंने तुरन्त ही वह बात प्रभु (आप) से कह दी।।39 (ख)।। चौपाई- माल्यवन्त अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना।। तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन।।1।। माल्यवान् नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मन्त्री था। उसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना (और कहा-) हे तात! आपके छोटे भाई नीति विभूषण (नीति को भूषण रूप में धारण करने वाले अर्थात् नीतिमान्) हैं। विभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे हृदय में धारण कर लीजिए।।1।। रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहां हइ कोऊ।। माल्यवन्त गह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी।।2।। (रावन ने कहा-) ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे हैं। यहां कोई है? इन्हें दूर करो न! तब माल्यवान् तो घर लौट गया और विभीषणजी हाथ जोड़कर फिर कहने लगे-।।2।। सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।। जहां सुमति तहं संपति नाना। जहां कुमति तहं बिपति निदाना।।3।। हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहां सुबुद्धि है, वहां नाना प्रकार की संपदाएं (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहां कुबुद्धि है वहां परिणाम में विपत्ति (दु:ख) रहती है।।3।। तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।। कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।।4।। आपके हृदय में उलटी बुद्धि आ बसी है। इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि (के समान) हैं, उन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है।।4।। दोहा- तात चरन गहि मागउं राखहु मोर दुलार। सीता देहुराम कहुं अहित न होइ तुम्हारा।।40।। हे तात! मैं चरण पकड़कर आपसे भीख मांगता हूं (विनती करता हूं)। कि आप मेरा दुलार रखिए (मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए) ी रामजी को सीताजी दे दीजिए, जिसमें आपका अहित न हो।।40।। cont ..................
चौपाई- बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी।। सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई।।1।। विभीषण ने पण्डितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी से नीति बखानकर कही। पर उसे सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है!।।1।। जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा।। कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं।।2।। अरे मूर्ख! तू जीता तो है सदा मेरा जिलाया हुआ (अर्थात् मेरे ही अन्न से पल रहा है), पर हे मूढ़! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है। अरे दुष्ट! बता न, जगत् में ऐसा कौन है जिसे मैंने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो?।।2।। मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती।। अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा।।3।। मेरे नगर में रहकर प्रेम करता है तपिस्वयों पर। मूर्ख! उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता। ऐसा कहकर रावण ने उन्हें लात मारी, परन्तु छोटे भाई विभीषण ने (मारने पर भी) बार-बार उसके चरण ही पकड़े।।3।। उमा सन्त कइ इहइ बड़ाई। मन्द करत जो करइ भलाई।। तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।।4।। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! सन्त की यही बड़ाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। (विभीषणजी ने कहा-) आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परन्तु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है।।4।। सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ।।5।। (इतना कहकर) विभीषण अपने मन्त्रियों को साथ लेकर आकाश मार्ग में गए और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे-।।5।। दोहा- रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि। मैं रघुबीर सरन अब जाउं देहु जनि खोरि।।41।। श्री रामजी सत्य संकल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु हैं और (हे रावण) तुम्हारी सभा काल के वश है। अत: मैं अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूं, मुझे दोष न देना।।41।। चौपाई- अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं।। साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।।1।। ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरन्त ही सम्पूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है।।1।। रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा।। चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं।।2।। रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य) से हीन हो गया। विभीषणजी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले।।2।। देखिहउं जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।। जे पद परसि तरी रिषनारी। दण्डक कानन पावनकारी।।3।। (वे सोचते जाते थे-) मैं जाकर भगवान् के कोमल और लाल वर्ण के सुन्दर चरण कमलों के दर्शन करूंगा, जो सेवकों को सुख देने वाले हैं, जिन चरणों का स्पर्श पाकर ऋषि पत्नी अहल्या तर गईं और जो दण्डकवन को पवित्र करने वाले हैं।।3।। जे पद जनकसुतां उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए।। हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउं तेई।।4।। जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर (उसे पकड़ने को) दौड़े थे और जो चरणकमल साक्षात् शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूंगा।।4।। दोहा- जिन्ह पायन्ह के पादुकिन्ह भरतु रहे मन लाइ। ते पद आजु बिलोकिहउं इन्ह नयनिन्ह अब जाइ।।42।। जिन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूंगा।।42।। चौपाई- ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिन्दु एहिं पारा।। कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा।।1।। इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचन्द्रजी की सेना थी) आ गए। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होंने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है।।1।। ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए।। कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई।।2।। उन्हें (पहरे पर) ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सुग्रीव ने (ी रामजी के पास जाकर) कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई (आप से) मिलने आया है।।2।। कह प्रभु सखा बूझिए काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा।। जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया।।3।। प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मित्र! तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)? वानरराज सुग्रीव ने कहा- हे महाराज! सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है।।3।। भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बांधि मोहि अस भावा।। सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी।।4।। (जान पड़ता है) यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बांध रखा जाए। (श्री रामजी ने कहा-) हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी, परन्तु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!।।4।। सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना।।5।। प्रभु के वचन सुनकर हनुमान्जी हर्षित हुए (और मन ही मन कहने लगे कि) भगवान् कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भांति प्रेम करने वाले) हैं।।5।। दोहा- सरनागत कहुं जे तजहिं निज अनहित अनुमानि। ते नर पावंर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि।।43।। (श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)।।43।। चौपाई- कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएं सरन तजउं नहिं ताहू।। सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।।1।। जिसे करोड़ों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।।1।। पापवन्त कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।। जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई।।2।। पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?।।2।। निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुं न कछु भय हानि कपीसा।।3।। जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है।।3।। जग महुं सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुं तेते।। जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउं ताहि प्रान की नाईं।।4।। क्योंकि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरे शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूंगा।।4।। दोहा- उभय भांति तेहि आनहु हंसि कह कृपानिकेत। जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत।।44।। कृपा के धाम श्री रामजी ने हंसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान् सहित सुग्रीवजी `कृपालु श्री रामजी की जय हो´ कहते हुए चले।।4।। चौपाई- सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहां रघुपति करुनाकर।। दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानन्द दान के दाता।।1।। विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर िफर वहां चले, जहां करुणा की खान ी रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनन्द का दान देने वाले (अत्यन्त सुखद) दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा।।1।। बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी।। भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन।।2।। फिर शोभा के धाम श्री रामजी को देखकर वे पलक (मारना) रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए। भगवान् की विशाल भुजाएं हैं लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला सांवला शरीर है।।2।। सिंघ कंध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा।। नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता।।3।। सिंह के से कंधे हैं, विशाल वक्ष:स्थल (चौड़ी छाती) अत्यन्त शोभा दे रहा है। असंख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है। भगवान् के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया। फिर मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल वचन कहे।।3।। नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता।। सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा।।4।। हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूं। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अंधकार पर सहज स्नेह होता है।।4।। दोहा- वन सुजसु सुनि आयउं प्रभु भंजन भव भीर। त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर।।45।। मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूं कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दु:ख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।।45।। चौपाई- अस कहि करत दण्डवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा।। दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयं लगावा।।1।। प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दण्डवत् करते देखा तो वे अत्यन्त हर्षित होकर तुरन्त उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया।।1।। अनुज सहित मिलि िढग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी।। कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।।2।। छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री रामजी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लंकेश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है।।2।। खल मण्डली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भांती।। मैं जानउं तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती।।3।। दिन-रात दुष्टों की मण्डली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (अचार-व्यवहार) जानता हूं। तुम अत्यन्त नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती।।3।। बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।। अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया।।4।। हे तात! नरक में रहना वरन् अच्छा है, परन्तु विधाता दुष्ट का संग (कभी) न दे। (विभीषणजी ने कहा-) हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूं, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है।।4।। दोहा- तब लगि कुसल न जीव कहुं सपनेहुं मन बिाम। जब लगि भजत न राम कहुं सोक धाम तजि काम।।46।। तब तक जीव की कुशल नहीं और न स्वप्न में भी उसके मन को शान्ति है, जब तक वह शोक के घर काम (विषय-कामना) को छोड़कर श्री रामजी को नहीं भजता।।46।। चौपाई- तब लगि हृदयं बसत खल नाना। लोभ मोह मच छर मद माना।। जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा।।1।। लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए ी रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते।।1।। ममता तरुन तमी अंधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी।। तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।।2।। ममता पूर्ण अंधेरी रात है, जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है। वह (ममता रूपी रात्रि) तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु (आप) का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता।।2।। अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे।। तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला।।3।। हे ी रामजी! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूं, मेरे भारी भय मिट गए। हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते।।3।। मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।। जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयं मोहि लावा।।4।। मैं अत्यन्त नीच स्वभाव का राक्षस हूं। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया।।4।। दोहा- अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज। देखेउं नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज।।47।। हे कृपा और सुख के पुंज श्री रामजी! मेरा अत्यन्त असीम सौभाग्य है, जो मैंने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा।।47।। चौपाई- सुनहु सखा निज कहउं सुभाऊ। जान भुसुण्डि संभु गिरिजाऊ।। जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही।।1।। (श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूं, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (सम्पूर्ण) जड़चेत न जगत् का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,।।1।। तजि मद मोह कपट छल नाना। करउं सद्य तेहि साधु समाना।। जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।।2।। और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूं। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार।।2।। सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बांध बरि डोरी।। समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं।।3।। इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बांध देता है। (सारे सांसारिक सम्बंधों का केन्द्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है।।3।। अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयं बसइ धनु जैसें।। तुम्ह सारिखे सन्त प्रिय मोरें। धरउं देह नहिं आन निहोरें।।4।। ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे सन्त ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता।।4।। दोहा- सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम। ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम।।48।। जो सगुण (साकार) भगवान् के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं।।48।। चौपाई- सुनु लंकेस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें।।। राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।।1।। हे लंकापति! सुनो, तुम्हारे अन्दर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय हो। श्री रामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो।।1।। सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात वनामृत जानी।। पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयं समात न प्रेमु अपारा।।2।। प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्री रामजी के चरण कमलों को पकड़ते हैं अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है।।2।। सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अन्तरजामी।। उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।।3।। (विभीषणजी ने कहा-) हे देव! हे चराचर जगत् के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी। वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई।।3।। अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी।। एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा।।4।। अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। `एवमस्तु´ (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरन्त ही समुद्र का जल मांगा।।4।। जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं।। अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा।।5।। (और कहा-) हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत् में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनको राजतिलक कर दिया। आकाश से पुष्पों की पार वृष्टि हुई।।5।। दोहा- रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचण्ड। जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखण्ड।।49क।। श्री रामजी ने रावण की क्रोध रूपी अग्नि में, जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवन से प्रचण्ड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखण्ड राज्य दिया।।49 (क)।। जो संपति सिव रावनहि दीिन्ह दिएं दस माथ। सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीिन्ह रघुनाथ।।49ख।। शिवजी ने जो संपत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही संपत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी।।49 (ख)।। चौपाई- अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूंछ बिषाना।। निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा।।1।। ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोड़कर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सींग पूंछ के पशु हैं। अपना सेवक जानकर विभीषण को श्री रामजी ने अपना लिया। प्रभु का स्वभाव वानरकुल के मन को (बहुत) भाया।।1।। पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी।। बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक।।2।। िफर सब कुछ जानने वाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सबसे रहित, उदासीन, कारण से (भक्तों पर कृपा करने के लिए) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करने वाले श्री रामजी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले-।।2।। सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गम्भीरा।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांति।।3।। हे वीर वानरराज सुग्रीव और लंकापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, सांप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यन्त अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है।।3।। कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक।। जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई।।4।। विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोड़ों समुद्रों को सोखने वाला है (सोख सकता है), तथापि नीति ऐसी कही गई है (उचित यह होगा) कि (पहले) जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए।।4।। दोहा- प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि।। बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि।।50।। हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बड़े (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देंगे। तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिम के समुद्र के पार उतर जाएगी।।50।।
चौपाई- सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई। मन्त्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा।।1।। (श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। ी रामजी के वचन सुनकर तो उन्होंने बहुत ही दु:ख पाया।।1।। नाथ दैव कर कवन भरोसा सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा।। कादर मन कहुं एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।।2।। (लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं।।2।। सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा।। अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई।।3।। यह सुनकर श्री रघुवीर हंसकर बोले- ऐसे ही करेंगे, मन में धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए।।3।। प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।। जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए।।4।। उन्होंने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे।।51।। दोहा- सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह। प्रभु गुन हृदयं सराहहिं सरनागत पर नेह।।51।। कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होंने सब लीलाएं देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे।।51।। चौपाई- प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ।। रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बांधि कपीस पहिं आने।।1।। िफर वे प्रकट रूप में भी अत्यन्त प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बड़ाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया। सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बांधकर सुग्रीव के पास ले आए।।1।। कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर।। सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बांधि कटक चहु पास िफराए।।2।। सुग्रीव ने कहा- सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अंग-भंग करके भेज दो। सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौड़े। दूतों को बांकर उन्होंने सेना के चारों ओर घुमाया।।2।। बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे।। जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना।।3।। वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोड़ा। (तब दूतों ने पुकारकर कहा-) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगंध है।। 3।। सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हंसि तुरत छोड़ाए।। रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती।।4।। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया। उन्हें बड़ी दया लगी, इससे हंसकर उन्होंने राक्षसों को तुरन्त ही छुड़ा दिया। (और उनसे कहा-) रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना (और कहना-) हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (सन्देसे) को बांचो।।4।। दोहा- कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम सन्देसु उदार। सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार।।52।। फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) सन्देश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो)।।52।। चौपाई- तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा।। कहत राम जसु लंकां आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए।।1।। लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरन्त ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हुए वे लंका में आए और उन्होंने रावण के चरणों में सिर नवाए।।1।। बिहसि दसानन पूंछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता।। पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी।।2।। दशमुख रावण ने हंसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? िफर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यन्त निकट आ गई है।।2।। करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी।। पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई।।3।। मूर्ख ने राज्य करते हुए लंका को त्याग दिया। अभागा अब जौ का कीड़ा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा), िफर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहां चली आई है।।3।। जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।। कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयं त्रास अति मोरी।।4।। और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्) उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते। फिर उन तपिस्वयों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बड़ा डर है।।4।। दोहा- की भइ भेंट कि फिरि गए वन सुजसु सुनि मोर। कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ।।53।। उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का सा) हो रहा है।।53।। चौपाई- नाथ कृपा करि पूंछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें।। मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा।।1।। (दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास कीजिए)। जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकर मिला, तब उसके पहुंचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया।।1।। रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बांधि दीन्हें दुख नाना।। वन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे।।2।। हम रावण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बांधकर बहुत कष्ट दिए, यहां तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे। श्री रामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा।।2।। पूंछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई।। नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी।।3।। हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं।।3।। जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महं तेहि बलु थोरा।। अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला।।4।। जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है। असंख्य नामों वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं। उनमें असंख्य हाथियों का बल है और वे बड़े ही विशाल हैं।।4।। दोहा- द्विबिद मयन्द नील नल अंगद गद बिकटासि। दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवन्त बलरासि।।54।। द्विविद, मयन्द, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान् ये सभी बल की राशि हैं।।54।। चौपाई- ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।। राम कृपां अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं।।1।। ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सों को गिन ही कौन सकता है। श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं।।1।। अस मैं सुना वन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बन्दर।। नाथ कटक महं सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं।।2।। हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके।।2।। परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा।। सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला।।3।। सब के सब अत्यन्त क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और सांपों सहित समुद्र को सोख लेंगे। नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे।।3।। मर्द गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।। गर्ज़हिं तर्ज़हिं सहज असंका। मानहुं ग्रसन चहत हहिं लंका।।4।। और रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लंका को निगल ही जाना चाहते हैं।।4।। दोहा- सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम। रावन काल कोटि कहुं जीति सकहिं संग्राम।।55।। सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) ी रामजी हैं। हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं।।55।। चौपाई- राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई।। सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूंछेउ नय नागर।।1।। श्री रामचन्द्रजी के तेज (सामथ्र्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं, परन्तु नीति निपुण श्री रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा।।1।। तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पन्थ कृपा मन माहीं।। सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा।।2।। उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री रामजी) समुद्र से राह मांग रहे हैं, उनके मन में कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हंसा (और बोला-) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है!।।2।। सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई।। मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।।3।। स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है? बस, मैंने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली।।3।। सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहां जग ताकें।। सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी।।4।। जिसके विभीषण जैसा डरपोक मन्त्री हो, उसे जगत् में विजय और विभूति (ऐश्वर्य) कहां? दुष्ट रावण के वचन सुनकर दूत को क्रोध बढ़ आया। उसने मौका समझकर पत्रिका निकाली।।4।। रामानुज दीन्हीं यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।। बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन।।5।। (और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठण्डी कीजिए। रावण ने हंसकर उसे बाएं हाथ से लिया और मन्त्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बंचाने लगा।।5।। दोहा- बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस। राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।।56क।। (पत्रिका में लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा।।56 (क)।। की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग। होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।।56ख।। या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भांति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! ी रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)।।56 (ख)।। चौपाई- सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई।। भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा।।1।। पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परन्तु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हांकता है)।।1।। कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।। सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा।।2।। शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए।।2।। अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।। मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही।।3।। यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यन्त ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे।।3।। जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे।। जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।।4।। जानकीजी ी रघुनाथजी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए। जब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी।।4।। नाइ चरन सिरु चला सो तहां। कृपासिंधु रघुनायक जहां।। करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपां आपनि गति पाई।।5।। वह भी (विभीषण की भांति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहां कृपासागर श्री रघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई।।5।। रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी।। बन्दि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आम कहुं पगु धारा।।6।। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था। बार-बार श्री रामजी के चरणों की वन्दना करके वह मुनि अपने आम को चला गया।।6।। दोहा- बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।57।। इधर तीन दिन बीत गए, किन्तु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!।।57।। चौपाई- लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु।। सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुन्दर नीति।।1।। हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूं। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से संुदर नीति (उदारता का उपदेश),।।1।। ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी।। क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएं फल जथा।।2।। ममता में फंसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यन्त लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शान्ति) की बात और कामी से भगवान् की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात् ऊसर में बीज बोने की भांति यह सब व्यर्थ जाता है)।।2।। अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा। यह मत लछिमन के मन भावा।। संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अन्तर ज्वाला।।3।। ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण संधान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अन्दर अग्नि की ज्वाला उठी।।3।। मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जन्तु जलनिधि जब जाने।। कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना।।4।। मगर, सांप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया।।4।। दोहा- काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।58।। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डांटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)।।58।। चौपाई- सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।1।। समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड़ है।।1।। तव प्रेरित मायां उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रन्थनि गाए।। प्रभु आयसु जेहि कहं जस अहई। सो तेहि भांति रहें सुख लहई।।2।। आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रन्थों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है।।2।। प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं।। ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।3।। प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दण्ड) दी, किन्तु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।।3।। प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।। प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई।।4।। प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊंगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बड़ाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात् आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरन्त वही करूं।।4।। दोहा- सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ। जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।59।। समुद्र के अत्यन्त विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री रामजी ने मुस्कुराकर कहा- हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ।।59।। चौपाई- नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई।। तिन्ह कें परस किएं गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।1।। (समुद्र ने कहा)) हे नाथ ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे।।1।। मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउं बल अनुमान सहाई।। एहि बिधि नाथ पयोधि बंधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुं गाइअ।।2।। मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहां तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए।।2।। एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी।। सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा।।3।। इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरन्त ही हर लिया (अर्थात् बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)।।3।। देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।। सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बन्दि पाथोधि सिधावा।।4।। श्री रामजी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया। उसने उन दुष्टों का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया। िफर चरणों की वन्दना करके समुद्र चला गया।।4।। छन्द- निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ। यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ।। सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना। तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि सन्तत सठ मना।। समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, सन्देह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरन्तर इन्हें गा और सुन। दोहा- सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।।60।। श्री रघुनाथजी का गुणगान सम्पूर्ण सुन्दर मंगलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएंगे।।60।। मासपारायण, चौबीसवां विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचम: सोपान: समाप्त:। कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पांचवां सोपान समाप्त हुआ। (सुन्दरकाण्ड समाप्त)