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शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं, ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्य विभुम्। रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं, वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्।।1।। शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरन्तर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वन्दना करता हूं।।1।। नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये, सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा। भक्त प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे, कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।2।। हे रघुनाजी ! मैं सत्य कहता हूं और फिर आप सबके अन्तरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए।।2।। अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं, दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्। सकलगुणनिधानं वानराणामधीश, रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।3।। अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्जी को मैं प्रणाम करता हूं।।3।। चौपाई- जामवन्त के बचन सुहाए। सुनि हनुमन्त हृदय अति भाए।। तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कन्द मूल फल खाई।।1।। जाम्बवान् के सुन्दर वचन सुनकर हनुमान्जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दु:ख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना।।1।। जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।। यह कहि नाइ सबिन्ह कहुं माथा । चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।।2।। जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊं। काम अवश्य होगा, क्योंकि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्जी हर्षित होकर चले।।2।। सिंधु तीर एक भूधर सुन्दर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।। बार-बार रघुबीर संभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी।।3।। समुद्र के तीर पर एक सुन्दर पर्वत था। हनुमान्जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढ़े और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यन्त बलवान् हनुमान्जी उस पर से बड़े वेग से उछले।।3।। जेहिं गिरि चरन देइ हनुमन्ता। चलेउ सो गा पाताल तुरन्ता।। जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भांति चलेउ हनुमाना।।4।। जिस पर्वत पर हनुमान्जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरन्त ही पाताल में धंस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्जी चले।।4।। जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि म हारी।।5।। समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक ! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात् अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)।।5।। दोहा- हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां बिश्राम।।1।। हनुमान्जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचन्द्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहां ?।।1।। चौपाई- जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुं बल बुद्धि बिसेषा।। सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।1।। देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होंने सुरसा नामक सपों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान्जी से यह बात कही-।।1।। आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा।। राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।2।। आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान्जी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊं और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूं,।।2।। तब तव बदन पैठिहउं आई। सत्य कहउं मोहि जान दे माई।। कवनेहुं जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।3।। तब मैं आकर तुम्हारे मुंह में घुस जाऊंगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता ! मैं सत्य कहता हूं, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान्जी ने कहा- तो फिर मुझे खा न ले।।3।। जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ।। सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।4।। उसने योजनभर (चार कोस में) मुंह फैलाया। तब हनुमान्जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्जी तुरन्त ही बत्तीस योजन के हो गए।।4।। जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा।। सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।5।। जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी, हनुमान्जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।।5।। बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा।। मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा।।6।। और उसके मुख में घुसकर (तुरन्त) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा मांगने लगे। (उसने कहा-) मैंने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था।।6।। दोहा- राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।। तुम श्री रामचन्द्रजी का सब कार्य करोगे, क्योंकि तुम बल-बुद्धि के भण्डार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्जी हर्षित होकर चले।।2।। चौपाई- निसिचरि एक सिंधु महुं रहई। करि माया नभु के खग गहई।। जीव जन्तु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।1।। समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को पकड़ लेती थी। आकाश में जो जीव-जन्तु उड़ा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर।।1।। गहइ छाहं सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई।। सोइ छल हनूमान् कहं कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।2।। उस परछाईं को पकड़ लेती थी, जिससे वे उड़ नहीं सकते थे (और जल में गिर पड़ते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उड़ने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान्जी से भी किया। हनुमान्जी ने तुरन्त ही उसका कपट पहचान लिया।।2।। ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा।। तहां जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।3।। पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहां जाकर उन्होंने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुंजार कर रहे थे।।3।। नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।। सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें।।4।। अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में (बहुत ही) प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान्जी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े।।4।। उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।। गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।5।। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! इसमें वानर हनुमान् की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता।।5।। अति उतंग जलनिधि चहुं पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा।।6।। वह अत्यन्त ऊंचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है।।6।। छन्द- कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना। चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।। गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै। बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।1।। विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अन्दर बहुत से सुन्दर-सुन्दर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियां हैं, सुन्दर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यन्त बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती।।1।। बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।। कहुं माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्ज़हीं। नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्ज़हीं।।2।। वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएं और बावलियां सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधवोø की कन्याएं अपने सौन्दर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान् मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक- दूसरे को ललकारते हैं।।2।। करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुं दिसि रच्छहीं। कहुं महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।। एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही। रघुबीर सर तीरथ सरीरिन्ह त्यागि गति पैहहिं सही।।3।। भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा यत्न करके (बड़ी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोड़ी सी कही है कि ये निश्चय ही ी रामचन्द्रजी के बाण रूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेंगे।।3।। दोहा- पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार। अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार।।3।। नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्जी ने मन में विचार किया कि अत्यन्त छोटा रूप धरूं और रात के समय नगर में प्रवेश करूं।।3।। चौपाई- मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।। नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निन्दरी।।1।। हनुमान्जी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान् ी रामचन्द्रजी का स्मरण करके लंका को चले (लंका के द्वार पर) लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहां चला जा रहा है?।।1।। जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहां लगि चोरा।। मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।2।। हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहां तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान्जी ने उसे एक घूंसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ी।।2।। पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका।। जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा।।3।। वह लंकिनी फिर अपने को सम्भालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी। (वह बोली-) रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि-।।3।। बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे।। तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउं नयन राम कर दूता।।4।। जब तू बन्दर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचन्द्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई।।4।। दोहा- तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।4।। हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है।।4।। चौपाई- प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयं राखि कोसलपुर राजा।। गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई।।1।। अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है।।1।। गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही।। अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।2।। और हे गरुड़जी ! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचन्द्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान्जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान् का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया।।2।। मन्दिर मन्दिर प्रति करि सोधा। देखे जहं तहं अगनित जोधा।। गयउ दसानन मन्दिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।3।। उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहां-तहां असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यन्त विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता।।3।। सयन किएं देखा कपि तेही। मन्दिर महुं न दीखि बैदेही।। भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मन्दिर तहं भिन्न बनावा।।4।। हनुमान्जी ने उस (रावण) को शयन किए देखा, परन्तु महल में जानकीजी नहीं दिखाई दीं। फिर एक सुन्दर महल दिखाई दिया। वहां (उसमें) भगवान् का एक अलग मन्दिर बना हुआ था।।4।। cont.
दोहा- रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ। नव तुलसिका बृन्द तहं देखि हरष कपिराई।।5।। वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहां नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान्जी हर्षित हुए।।5।। चौपाई- लंका निसिचर निकर निवासा। इहां कहां सज्जन कर बासा।। मन महुं तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा।।1।। लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहां सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहां? हनुमान्जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे।।1।। राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयं हरष कपि सज्जन चीन्हा।। एहि सन हठि करिहउं पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी।।2।। उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूंगा, क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)।।2।। बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहं आए।। करि प्रनाम पूंछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।3।। ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान्जी ने उन्हें वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही विभीषणजी उठकर वहां आए। प्रणाम करके कुशल पूछी (और कहा कि) हे ब्राह्मणदेव ! अपनी कथा समझाकर कहिए।।3।। की तुम्ह हरि दासन्ह महं कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई।। की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।।4।। क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यन्त प्रेम उमड़ रहा है। अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?।।4।। दोहा- तब हनुमन्त कही सब राम कथा निज नाम। सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।6।। तब हनुमान्जी ने ी रामचन्द्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और ी रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन (प्रेम और आनन्द में) मग्न हो गए।।6।। चौपाई- सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनिन्ह महुं जीभ बिचारी।। तात कबहुं मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।1।। (विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र ! मेरी रहनी सुनो। मैं यहां वैसे ही रहता हूं जैसे दांतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात ! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचन्द्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?।।1।। तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं।। अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं सन्ता।।2।। मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परन्तु हे हनुमान् ! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना सन्त नहीं मिलते।।2।। जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।। सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति।।3।। जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं। (हनुमान्जी ने कहा-) हे विभीषणजी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं।।3।। कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।। प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।4।। भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूं? (जाति का) चंचल वानर हूं और सब प्रकार से नीच हूं, प्रात:काल जो हम लोगों (बन्दरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले।।4।। दोहा- अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर। कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।7।। हे सखा ! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूं, पर श्री रामचन्द्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान् के गुणों का स्मरण करके हनुमान्जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया।।7।। चौपाई- जानत हूं अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी।। एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिबार्च्य बिश्रामा।।1।। जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते िफरते हैं, वे दु:खी क्यों न हों? इस प्रकार श्री रामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय (परम) शान्ति प्राप्त की।।1।। पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहं रही।। तब हनुमन्त कहा सुनु भ्राता। देखी चहउं जानकी माता।।2।। फिर विभीषणजी ने, श्री जानकीजी जिस प्रकार वहां (लंका में) रहती थीं, वह सब कथा कही। तब हनुमान्जी ने कहा- हे भाई सुनो, मैं जानकी माता को देखता चाहता हूं।।2।। जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवन सुत बिदा कराई।। करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवां। बन असोक सीता रह जहवां।।3।। विभीषणजी ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियां (उपाय) कह सुनाईं। तब हनुमान्जी विदा लेकर चले। फिर वही (पहले का मसक सरीखा) रूप धरकर वहां गए, जहां अशोक वन में (वन के जिस भाग में) सीताजी रहती थीं।।3।। देखि मनहि महुं कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा।। कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयं रघुपति गुन ेनी।।4।। सीताजी को देखकर हनुमान्जी ने उन्हें मन ही में प्रणाम किया। उन्हें बैठे ही बैठे रात्रि के चारों पहर बीत जाते हैं। शरीर दुबला हो गया है, सिर पर जटाओं की एक वेणी (लट) है। हृदय में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं।।4।। दोहा- निज पद नयन दिएं मन राम पद कमल लीन। परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन।।8।। श्री जानकीजी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं (नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्री रामजी के चरण कमलों में लीन है। जानकीजी को दीन (दु:खी) देखकर पवनपुत्र हनुमान्जी बहुत ही दु:खी हुए।।8।। चौपाई- तरु पल्लव महं रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई।। तेहि अवसर रावनु तहं आवा। संग नारि बहु किएं बनावा।।1।। हनुमान्जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूं (इनका दु:ख कैसे दूर करूं)? उसी समय बहुत सी स्त्रियों को साथ लिए सज- धजकर रावण वहां आया।।1।। बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा।। कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मन्दोदरी आदि सब रानी।।2।। उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया। साम, दान, भय और भेद दिखलाया। रावण ने कहा- हे सुमुखि ! हे सयानी ! सुनो ! मन्दोदरी आदि सब रानियों को-।।2।। तव अनुचरीं करउं पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।। तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।।3।। मैं तुम्हारी दासी बना दूंगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड़ (परदा) करके कहने लगीं-।।3।। सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुं कि नलिनी करइ बिकासा।। अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की।।4।। हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं- तू (अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट ! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है।।4।। सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।।5।। रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निलर्ज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?।।5।। दोहा- आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान। परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन।।9।। अपने को जुगनू के समान और रामचन्द्रजी को सूर्य के समान सुनकर और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बड़े गुस्से में आकर बोला-।।9।। चौपाई- सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउं तव सिर कठिन कृपाना।। नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी।।1।। सीता! तूने मेरा अपनाम किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूंगा। नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले। हे सुमुखि! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।।1।। स्याम सरोज दाम सम सुन्दर। प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर।। सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा।।2।। (सीताजी ने कहा-) हे दशग्रीव ! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की माला के समान सुन्दर और हाथी की सूंड के समान (पुष्ट तथा विशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कंठ में पड़ेगी या तेरी भयानक तलवार ही। रे शठ ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है।।2।। चन्द्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल संजातं।। सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा।।3।। सीताजी कहती हैं- हे चन्द्रहास (तलवार)! श्री रघुनाथजी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बड़ी भारी जलन को तू हर ले, हे तलवार! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है (अर्थात् तेरी धारा ठंढी और तेज है), तू मेरे दु:ख के बोझ को हर ले।।3।। सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयां कहि नीति बुझावा।। कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई।।4।। सीताजी के ये वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा। तब मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया। तब रावण ने सब दासियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ।।4।। मास दिवस महुं कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।।5।। यदि महीने भर में यह कहा न माने तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूंगा।।5।। दोहा- भवन गयउ दसकंधर इहां पिसाचिनि बृंद। सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मन्द।।10।। (यों कहकर) रावण घर चला गया। यहां राक्षसियों के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे।।10।। चौपाई- त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका।। सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना।।1।। उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थी। उसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा- सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो।।1।। सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।। खर आरूढ़ नगन दससीसा। मंुडित सिर खण्डित भुज बीसा।।2।। स्वप्न (मैंने देखा कि) एक बन्दर ने लंका जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई। रावण नंगा है और गदहे पर सवार है। उसके सिर मुंडे हुए हैं, बीसों भुजाएं कटी हुई हैं।।2।। एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुं बिभीषन पाई।। नगर िफरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई।।3।। इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लंका विभीषण ने पाई है। नगर में श्री रामचन्द्रजी की दुहाई फिर गई। तब प्रभु ने सीताजी को बुला भेजा।।3।। यह सपना मैं कहउं पुकारी। होइहि सत्य गएं दिन चारी।। तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनिन्ह परीं।।4।। मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूं कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा। उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियां डर गईं और जानकीजी के चरणों पर गिर पड़ीं।।4।। दोहा- जहं तहं गईं सकल तब सीता कर मन सोच। मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच।।11।। तब (इसके बाद) वे सब जहां-तहां चली गईं। सीताजी मन में सोच करने लगीं कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा।।1।। चौपाई- त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति संगिनि तैं मोरी।। तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई।।1।। सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूं। विरह असह्म हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता।।1।। आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।। सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को वन सूल सम बानी।।2।। काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे। हे माता ! फिर उसमें आग लगा दे। हे सयानी! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे। रावण की शूल के समान दु:ख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने?।।2।। सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि।। निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी।3।। सीताजी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया। (उसने कहा-) हे सुकुमारी! सुनो रात्रि के समय आग नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई।।3।। कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला।। देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा।।4।। सीताजी (मन ही मन) कहने लगीं- (क्या करूं) विधाता ही विपरीत हो गया। न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता।।4।। पावकमय ससि स्त्रवत न आगी। मानहुं मोहि जानि हतभागी।। सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका।।5।। चन्द्रमा अग्निमय है, किन्तु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर।।5।। नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना।। देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता।।6।। तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अन्त मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुंचा) सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान्जी को कल्प के समान बीता।।6।। सोरठा- कपि करि हृदयं बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब। जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ।।12।। तब हनुमान्जी ने हदय में विचार कर (सीताजी के सामने) अंगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे दिया। (यह समझकर) सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया।।12।। चौपाई- तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुन्दर।। चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयं अकुलानी।।1।। तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर अंगूठी देखी। अंगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं।।1।। जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई।। सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना।।2।। (वे सोचने लगीं-) श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अंगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्जी मधुर वचन बोले-।।2।। रामचन्द्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।। लागीं सुनैं वन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई।।3।। वे श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दु:ख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्जी ने आदि से लेकर सारी कथा कह सुनाई।।3।। वनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई।। तब हनुमन्त निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ।।4।। (सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुन्दर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्जी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं ? उनके मन में आश्चर्य हुआ।।4।। राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की।। यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहं सहिदानी।।5।। (हनुमान्जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूं। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूं, हे माता ! यह अंगूठी मैं ही लाया हूं। श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है।।5।। नर बानरहि संग कहु कैसें। कही कथा भइ संगति जैसें।।6।। (सीताजी ने पूछा-) नर और वानर का संग कहो कैसे हुआ? तब हनुमनाजी ने जैसे संग हुआ था, वह सब कथा कही।।6।। दोहा- कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास। जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास।।13।। हनुमान्जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होंने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है।।13।। चौपाई- हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।। बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुं जलजाना।।1।। भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यन्त गाढ़ी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया (सीताजी ने कहा-) हे तात हनुमान् ! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए।।1।। अब कहु कुसल जाउं बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी।। कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई।।2।। मैं बलिहारी जाती हूं, अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मंगल कहो। श्री रघुनाथजी तो कोमल हृदय और कृपालु हैं। फिर हे हनुमान् ! उन्होंने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है?।।2।। सहज बानि सेवक सुखदायक। कबहुंक सुरति करत रघुनायक।। कबहुं नयन मम सीतल ताता। होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।।3।। सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है। वे श्री रघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल सांवले अंगों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होंगे?।।3।। बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।। देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता।।4।। (मुंह से) वचन नहीं निकलता, नेत्रों में (विरह के आंसुओं का) जल भर आया। (बड़े दु:ख से वे बोलीं-) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान्जी कोमल और विनीत वचन बोले- ।।4।। मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता।। जनि जननी मानह जियं ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना।।5।। हे माता ! सुंदर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित (शरीर से) कुशल हैं, परन्तु आपके दु:ख से दु:खी हैं। हे माता ! मन में ग्लानि न मानिए (मन छोटा करके दु:ख न कीजिए)। श्री रामचन्द्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है।।5।। दोहा- रघुपति कर सन्देसु अब सुनु जननी धरि धीर। अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर।।14।। हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का सन्देश सुनिए। ऐसा कहकर हनुमान्जी प्रेम से गद्गद हो गए। उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया।।14।। चौपाई- कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुं सकल भए बिपरीता।। नव तरु किसलय मनहुं कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू।।1।। (हनुमान्जी बोले-) श्री रामचन्द्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चन्द्रमा सूर्य के समान।।1।। कुबलय बिपिन कुन्त बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा।। जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।2।। और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। त्रिविध (शीतल, मन्द, सुगंध) वायु सांप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गई है।।2।। कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई।। तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।3।। मन का दु:ख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूं किससे? यह दु:ख कोई जानता नहीं। हे प्रिये ! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है।।3।। सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।। प्रभु सन्देसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।4।। और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का सन्देश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध न रही।।4।। कह कपि हृदयं धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।। उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।।5।। हनुमान्जी ने कहा- हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले ी रामजी का स्मरण करो। श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो।।5।। दोहा- निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु। जननी हृदयं धीर धरु जरे निसाचर जानु।।15।। राक्षसों के समूह पतंगों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता ! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो।।15।। cont.......
चौपाई- जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलंबु रघुराई।। राम बान रबि उएं जानकी। तम बरुथ कहं जातुधान की।।1।। ी रामचन्द्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलंब न करते। हे जानकीजी ! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अंधकार कहां रह सकता है?।।1।। अबहिं मातु मैं जाउं लवाई। प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई।। कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।2।। हे माता! मैं आपको अभी यहां से लिवा जाऊं, पर श्री रामचन्द्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है। (अत हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्री रामचन्द्रजी वानरों सहित यहां आएंगे।।2।। निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुं पुर नारदादि जसु गैहहिं।। हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।।3।। और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएंगे। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएंगे। (सीताजी ने कहा-) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें से) होंगे, राक्षस तो बड़े बलवान, योद्धा हैं।।3।। मोरें हृदय परम सन्देहा। सुनि कपि प्रगट कीिन्ह निज देहा।। कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा।।4।। अत: मेरे हृदय में बड़ा भारी सन्देह होता है ( कि तुम जैसे बन्दर राक्षसों को कैसे जीतेंगे!)। यह सुनकर हनुमान्जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यन्त विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यन्त बलवान् और वीर था।।4।। सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।5।। तब (उसे देखकर) सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमान्जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया।।5।। दोहा- सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल। प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल।।16।। हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परन्तु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड़ को खा सकता है। (अत्यन्त निर्बल भी महान् बलवान् को मार सकता है)।।16।। चौपाई- मन सन्तोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी।। आसिष दीिन्ह राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना।।1।। भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में सन्तोष हुआ। उन्होंने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमान्जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ।।1।। अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुं बहुत रघुनायक छोहू।। करहुं कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना।।2।। हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। `प्रभु कृपा करें´ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए।।2।। बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।। अब कृतकृत्य भयउं मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।।3।। हनुमान्जी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता ! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है।।3।। सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुन्दर फल रूखा।। सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी।।4।। हे माता! सुनो, सुन्दर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। (सीताजी ने कहा-) हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं।।4।। तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।।5।। (हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर) आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है।।5।। दोहा- देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु। रघुपति चरन हृदयं धरि तात मधुर फल खाहु।।17।। हनुमान्जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा- जाओ। हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ।।17।। चौपाई- चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा।। रहे तहां बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे।।1।। वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए। फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहां बहुत से योद्धा रखवाले थे। उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की-।।1।। नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी।। खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्द मर्द महि डारे।।2।। (और कहा-) हे नाथ! एक बड़ा भारी बन्दर आया है। उसने अशोक वाटिका उजाड़ डाली। फल खाए, वृक्षों को उखाड़ डाला और रखवालों को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया।।2।। सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना।। सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे।।3।। यह सुनकर रावण ने बहुत से योद्धा भेजे। उन्हें देखकर हनुमान्जी ने गर्ज़ना की। हनुमान्जी ने सब राक्षसों को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गए।।3।। पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा।। आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा।।4।। फिर रावण ने अक्षयकुमार को भेजा। वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर चला। उसे आते देखकर हनुमान्जी ने एक वृक्ष (हाथ में) लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्वनि (बड़े जोर) से गर्ज़ना की।।4।। दोहा- कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि। कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि।।18।। उन्होंने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया। कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बन्दर बहुत ही बलवान् है।।18।। चौपाई- सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना।। मारसि जनि सुत बांधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहां कर आही।।1।। पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान् मेघनाद को भेजा। (उससे कहा कि-) हे पुत्र! मारना नहीं उसे बांध लाना। उस बन्दर को देखा जाए कि कहां का है।।1।। चला इन्द्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा।। कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा।।2।। इन्द्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला। भाई का मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया। हनुमान्जी ने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है। तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े।।3।। अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा।। रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्द निज अंगा।।3।। उन्होंने एक बहुत बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया और (उसके प्रहार से) लंकेश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया। (रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक दिया)। उसके साथ जो बड़े-बड़े योद्धा थे, उनको पकड़-पकड़कर हनुमान्जी अपने शरीर से मसलने लगे।।3।। तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुं गजराजा।। मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई।।4।। उन सबको मारकर फिर मेघनाद से लड़ने लगे। (लड़ते हुए वे ऐसे मालूम होते थे) मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गए हों। हनुमान्जी उसे एक घूंसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े। उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गई।।4।। उठि बहोरि कीिन्हसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया।।5।। िफर उठकर उसने बहुत माया रची, परन्तु पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते।।5।। दोहा- ब्रह्म अस्त्र तेहि सांधा कपि मन कीन्ह बिचार। जौं न ब्रह्मसर मानउं महिमा मिटइ अपार।।19।। अन्त में उसने ब्रह्मास्त्र का संधान (प्रयोग) किया, तब हनुमान्जी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी।।19।। चौपाई- ब्रह्मबान कपि कहुं तेहिं मारा। परतिहुं बार कटकु संघारा।। तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बांधेसि लै गयऊ।।1।। उसने हनुमान्जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े), परन्तु गिरते समय भी उन्होंने बहुत सी सेना मार डाली। जब उसने देखा कि हनुमान्जी मूर्च्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बांधकर ले गया।।1।। जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी।। तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बंधावा।।2।। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है? किन्तु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान्जी ने स्वयं अपने को बंधा लिया।।2।। कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभां सब आए।। दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई।।3।। बन्दर का बांधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए। हनुमान्जी ने जाकर रावण की सभा देखी। उसकी अत्यन्त प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती।।3।। कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।। देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुं गरुड़ असंका।।4।। देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान्जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ। वे ऐसे निशंख खड़े रहे, जैसे सर्पो के समूह में गरुड़ नि:शंख निर्भय) रहते हैं।।4।। दोहा- कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुबाoद। सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयं बिसाद।।20।। हनुमान्जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हंसा। फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया।।20।। चौपाई- कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा।। की धौं वन सुनेहि नहिं मोही। देखउं अति असंक सठ तोही।।1।। लंकापति रावण ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला ? क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानों से नहीं सुना? रे शठ ! मैं तुझे अत्यन्त नि:शंख देख रहा हूं।।1।। मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा।। सुनु रावन ब्रह्माण्ड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया।।2।। तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है? (हनुमान्जी ने कहा-) हे रावण! सुन, जिनका बल पाकर माया सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के समूहों की रचना करती है,।।2।। जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा।। जा बल सीस धरत सहसानन। अण्डकोस समेत गिरि कानन।।3।। जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमश सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्त्रमुख (फणों) वाले शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्माण्ड को सिर पर धारण करते हैं,।।3।। धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता।। हर कोदण्ड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा।।4।। जो देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया।।4।। खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली।।5।। जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलवान् थे,।।5।। दोहा- जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि। तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।21।। जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम (चोरी से) हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूं।।21।। चौपाई- जानउं मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई।। समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा।।1।। मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूं सहस्त्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था। हनुमान्जी के (मार्मिक) वचन सुनकर रावण ने हंसकर बात टाल दी।।1।। खायउं फल प्रभु लागी भूंखा। कपि सुभाव तें तोरेउं रूखा।। सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी।।2।। हे (राक्षसों के) स्वामी मुझे भूख लगी थी, (इसलिए) मैंने फल खाए और वानर स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े। हे (निशाचरों के) मालिक ! देह सबको परम प्रिय है। कुमार्ग पर चलने वाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे।।2।। जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बांधेउं तनयं तुम्हारे।। मोहि न कछु बांधे कइ लाजा। कीन्ह चहउं निज प्रभु कर काजा।।3।। तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बांध लिया (किन्तु), मुझे अपने बांधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो अपने प्रभु का कार्य किया चाहता हूं।।3।। बिनती करउं जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन।। देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी।।4।। हे रावण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूं, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भक्त भयहारी भगवान् को भजो।।4।। जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई।। तासों बयरु कबहुं नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै।।5।। जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यन्त डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो।।5।। दोहा- प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि। गएं सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि।।22।। खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं। शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे।।22।। चौपाई- राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू।। रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुं जनि होहु कलंका।।1।। तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चन्द्रमा के समान है। उस चन्द्रमा में तुम कलंक न बनो।।1।। राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा।। बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी।।2।। राम नाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोह को छोड़, विचारकर देखो। हे देवताओं के शत्रु! सब गहनों से सजी हुई सुन्दरी स्त्री भी कपड़ों के बिना (नंगी) शोभा नहीं पाती।।2।। राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई।। सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएं पुनि तबहिं सुखाहीं।।3।। रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्त्रोत नहीं है। (अर्थात् जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरन्त ही सूख जाती हैं।।3।। सुनु दसकंठ कहउं पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी।। संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही।।4।। हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूं कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते।।4।। दोहा- मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान। भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान।।23।। मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान् श्री रामचन्द्रजी का भजन करो।।23।। चौपाई- जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।। बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।1।। यद्यपि हनुमान्जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान् अभिमानी रावण बहुत हंसकर (व्यंग्य से) बोला कि हमें यह बन्दर बड़ा ज्ञानी गुरु मिला!।।1।। मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।। उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।2।। रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गई है। अधम! मुझे शिक्षा देने चला है। हनुमान्जी ने कहा- इससे उलटा ही होगा (अर्थात् मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नहीं)। यह तेरा मतिभ्रम (बुद्धि का फेर) है, मैंने प्रत्यक्ष जान लिया है।।2।। सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना।। सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए।।3।। हनुमान्जी के वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया। (और बोला-) अरे! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौड़े उसी समय मन्त्रियों के साथ विभीषणजी वहां आ पहुंचे।।3।। नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता।। आन दण्ड कछु करिअ गोसांई। सबहीं कहा मन्त्र भल भाई।।4।। उन्होंने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावण से कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए, यह नीति के विरुद्ध है। हे गोसाईं। कोई दूसरा दण्ड दिया जाए। सबने कहा- भाई ! यह सलाह उत्तम है।।4।। सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बन्दर।।5।। यह सुनते ही रावण हंसकर बोला- अच्छा तो, बन्दर को अंग-भंग करके भेज (लौटा) दिया जाए।।5।। दोहा- कपि कें ममता पूंछ पर सबहि कहउं समुझाइ। तेल बोरि पट बांधि पुनि पावक देहु लगाइ।।24।। मैं सबको समझाकर कहता हूं कि बन्दर की ममता पूंछ पर होती है। अत: तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूंछ में बांधकर फिर आग लगा दो।।24।। चौपाई- पूंछहीन बानर तहं जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि।। जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई।।1।। जब बिना पूंछ का यह बन्दर वहां (अपने स्वामी के पास) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा। जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूं!।।1।। बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना।। जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना।।2।। यह वचन सुनते ही हनुमान्जी मन में मुस्कुराए (और मन ही मन बोले कि) मैं जान गया, सरस्वतीजी (इसे ऐसी बुद्धि देने में) सहायक हुई हैं। रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वही (पूंछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे।।2।। रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूंछ कीन्ह कपि खेला।। कौतुक कहं आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हांसी।।3।। (पूंछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि) नगर में कपड़ा, घी और तेल नहीं रह गया। हनुमान्जी ने ऐसा खेल किया कि पूंछ बढ़ गई (लंबी हो गई)। नगर वासी लोग तमाशा देखने आए। वे हनुमान्जी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी हंसी करते हैं।।3।। बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूंछ प्रजारी।। पावक जरत देखि हनुमन्ता। भयउ परम लघुरूप तुरन्ता।।4।। ढोल बजते हैं, सब लोग तालियां पीटते हैं। हनुमान्जी को नगर में फिराकर, फिर पूंछ में आग लगा दी। अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमान्जी तुरन्त ही बहुत छोटे रूप में हो गए।।4।। निबुकि चढ़ेउ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं।।5।। बंधन से निकलकर वे सोने की अटारियों पर जा चढ़े। उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियां भयभीत हो गईं।।5।। दोहा- हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास। अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।25।। उस समय भगवान् की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे। हनुमान्जी अट्टहास करके गरजे और बढ़कर आकाश से जा लगे।।25।।